March 26, 2025

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खुशी, दर्द, आकर्षण, विकर्षण, आराम, डर, संतोष, प्रेम-घृणा, क्रोध-क्षमा इत्यादि के साथ एक नया भाव कलयुग में हुआ जागृत :- रीना त्रिपाठी

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लखनऊ

प्रेम विश्वास और आघात और निर्ममता
प्रकृति ने मनुष्य को संवेदनशील बनाया है ,भावपूर्ण बनाया है अतः प्रकृति की भांति मनुष्य में भी विभिन्न प्रकार की भावनाएं पाई जाती हैं। ये भावनाएं शारीरिक और मानसिक संवेदनाएं होती हैं ये किसी चीज़, घटना, या स्थिति के विशेष महत्व को दर्शाती हैं।भावनाएं, हमारे जीवन का आधार होती हैं और हम सभी भावनाओं से ही संचालित होते है।भावनाएं, शरीर का संचार करने का तरीका हैं कि हम दुनिया का अनुभव कैसे कर रहे हैं खुशी, दर्द, आकर्षण, विकर्षण, आराम, डर, संतोष, प्रेम-घृणा, क्रोध-क्षमा इत्यादि के साथ एक नया भाव कलयुग में जागृत हुआ है बदला ।
क्रोध बदला कब हत्या में तब्दील हो जाए इसका पता नहीं लगता।आप सब अखबारों में पढ़ रहे होंगे सोशल मीडिया के जमाने में देख भी रहे होंगे कि किस प्रकार प्रेम विवाह के उपरांत एक पत्नी ने झूठ और नशे की लत से अजीज आकर पति की हत्या ,अपने दूसरे बॉयफ्रेंड से मिलकर करवा दी। क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए लाश को कई टुकड़ों में काटकर ड्रम में सीमेंट के साथ जमा दिया। वहीं लखनऊ के एक गांव में एक परिवार की बेटी का दूसरी जाति के लड़के के साथ प्रेम संबंध था। घर वालों को पता चला तो सड़क पर उस लड़की को सरे आम माता पिता भाई ने मारा पीटा जिससे तंग आकर उस लड़की ने घर में जाकर फांसी लगा ली। मृत्यु के बाद उस लड़की की मां लड़के वालों को झूठे पुलिस केस में फंसा कर मोटी रकम मिलने का इंतजार करने लगी दूसरे पक्ष को आरोपित करते हुए पूरी कोशिश करने वालों की यह आत्महत्या नहीं बेवफाई के कारण की गई हत्या है,केस अभी जारी है।
वहीं एक ओर पति-पत्नी में झगड़ा होता है तो मिलिट्री में कार्यरत पति ने पत्नी को गला दबा कर मार दिया फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर कुकर में उबालकर लाश को ठिकाने में लगा दिया। लखनऊ में ही पुलिस में तैनात एक सिपाही जिसे शक था कि उसकी पत्नी का किसी से अवैध संबंध है, शक शायद सही भी था शादी के पहले से ही लड़की उसे लड़की को पसंद करती थी परंतु पारिवारिक दबाव के कारण शादी करनी पड़ी। पुलिस में तैनात पति ने पत्नी से फोन करा के उसके प्रेमी को बुलवाया और प्रेमी तथा उसके साथी की निर्मम हत्या कर दी।
इसी तरह के उदाहरण रोज ही आप न्यूजपेपर सोशल मीडिया में देखते होंगे और देखकर एहसास होता है कि कलयुग की क्या पराकाष्ठा का समय आ गया है। मनुष्य को क्या लोग जानवर की तरह समझने लगे हैं जिसे मारना, इसकी हत्या करना और लाश को ठिकाने लगाना नए-नए तरीकों के द्वारा हत्या का प्रयास करना और इंसान को इंसान ना समझना कलयुग की चरम पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है। यह सब तो अपने प्रेम संबंध या बहुत ही खास संबंधों के अत्याचार या बदला लेने के प्रकरण देखें।
समाज में एक और बहुत ही चर्चित पहलू चल रहा है रेप का। अभी हाल ही में हमने लखनऊ में एक अकेली महिला जो रोजगार के लिए प्रयासरत थी की परिस्थितियों का फायदा उठाते हुए, रेप और निर्मम हत्या देखी। अक्सर ही हम निर्बल ,असहाय चार साल के बच्ची से लेकर साठ साल तक की बुजुर्ग महिला का रेप होते हुए पेपर और सोशल मीडिया में लगभग प्रतिदिन ही देखते हैं ।इस डर से कि अपराधी की पहचान न उजागर हो पाए रेप होने के बाद हत्या कर देना आम बात है। और इंटरनेट की सहायता से लाश ठिकाने लगा देना या फिर उसे आत्महत्या दिखा देना और भी नए तरीके इस्तेमाल करना अपराधियों की कलयुगी मानसिकता को दर्शाता है।
जाने अनजाने कभी-कभी निर्दोष तो कभी प्यार में धोखा खाने पर या कभी अपने पार्टनर का अपने अनुरूप खरा ना उतरने पर, कभी किसी नशेड़ी पुत्र द्वारा पैसा ना मिलने पर पत्नी बच्चों और मां-बाप की हत्या का समाचार भी हम लोग आए दिन बढ़ते हैं। निठारी कांड में तो हमने अबोध बच्चों के अंगों का सूप पीने वाले लोग भी देख लिए और सबूत के अभाव में बरी होते भी देखा। मानव तस्करी, अंग तस्करी तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी बहुत बड़ा स्थान रखने लगा है।
इन सब घटनाओं को देखकर आपको क्या लगता है मनुष्य की मशीनरी गड़बड़ हो रही है या मनुष्य के फिजियोलॉजी गड़बड़ हो रही है या फिर मनुष्य में किसी एक विशेष भावना के हावी होने का समय चल रहा है। या फिर प्रकृति मनुष्य जाति को विनाश का भाव आक्रामक भावनाओं को हावी कर दे रही है।
प्रतिदिन होने वाले अपराधों का दोषी हम किस सरकार को, किस प्रशासन को या फिर किस जनता को देना चाहते हैं।
क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपराधी आप और हममें से ही कोई है या हम सभी अपराधी हैं ।बस अपराध करते समय कौन कितना अच्छा मुखौटा पहन लेता है बस यही काबिले तारीफ है। शायद यही कारण है कि हम अपने बीच पल रहे अपराधियों को पहचान नहीं पाते और यह पता तब चलता है जब अपराध अपने अंतिम चरण में पहुंच जाता है। समाज में व्याप्त हो रही प्री वेडिंग, लीव इन रिलेशनशिप, शादी के पहले के रिश्ते और शादी के बाद जैसे रिश्तो जैसी पाश्चात्य कुरीतियों से समाज को बचाना होगा। क्योंकि आज यह सभी रिश्तो की मर्यादा और समाज में नैतिकता के मापदंड को खत्म कर रहे हैं। प्रेम में समर्पण के नाम पर सेक्स और व्यभिचार हावी है। प्रेम भावना नहीं स्टेटस सिंबल बनकर रह गया है। कौन कितने लड़कों से या लड़कियों से प्रेम या संबंध रखता है,संख्या के आधार पर सामाजिक स्तर बढ़ानेऔर दिखाने की होड़ लगी हुई है। और यदि किसी भी कारण से रिश्ता टूटता है तो व्यक्ति खुद का अपमान ,खुद की जलालत और आत्मग्लानि से जोड़ते हुए हत्या/आत्महत्या पर उतारू हो जाता है। सोचिए क्या यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति का कभी भी इतना कलुषित चेहरा रहा है।
प्रेम ,घृणा या नफरत क्या मोहलत नहीं सिखाती। इंसानियत, नैतिकता क्या समाज से खत्म हो गई है? यदि नहीं तो क्यों हम मनुष्य होकर दूसरे मनुष्य के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं। ताकत, झूठ ,फ़रेब, बेरहमी क्या मनुष्य के जीवन से खत्म नहीं किए जा सकते, यदि किया जा सकते हैं तो आइए मिलकर मानवता की रक्षा करें, रिश्तों का सम्मान करें ,जीवात्मा से प्रेम करें ,प्रेम में खुशियां दी जाती है यह हमें जन्मजात प्रकृति सिखाती हैं ,छिनना नहीं।
आत्मबल प्रेम और संयम से आसक्ति, अतिशक्ति, अनाशक्ति पर काबू पाया जा सकता है यदि हम सब मनुष्य अपने इन तीनों गुणों पर नियंत्रण प्राप्त करते हुए प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्रेम, समर्पण, सौहाद्र, सहनशीलता के मायने समझ जाएंगे तो इस तरह की अपने निकट या दूर रिश्ते में या गैर रिश्ते में प्रताड़ना , हत्या,अहिंसा, क्रूरता , बर्बरता करना बंद कर दूसरे व्यक्ति एक मौका स्वतंत्रता का देंगे । पाशविक प्रवृत्तियां भी ऐसा नहीं करती उनमें आज भी संवेदनशीलता और प्राकृतिक गुण विराजमान है।
आइए हम सब रुक कर एक बार सोचे कि जब हमने जीवन दिया नहीं तो जीवन छीनने का अधिकार कैसे मिला? दूसरे जीवों को मारकर खाने की प्रवृत्ति,नशे की अधिकता,तामसिक भोजन से क्या मनुष्य की बुद्धि भी तामसिक होती जा रही है यह सोचना होगा।
आध्यात्म के पहलू से सोचें तो क्या इस अपराध के लिए ईश्वर या सर्वोच्च सत्ता कभी हम मनुष्यों को माफ कर पाएगी। मनन करे और ऐसी सभी भावों, कुरीतियों से दूर हैं जिससे मन में कटुता, दिमाग में शून्यता और भाव में उच्छृंखलता का वास होता है। अपने पार्टनर रिश्तेदार या खुद पर आश्रित ऐसे किसी भी रिश्ते को खुद का पराधीन ना माने, दूसरों को भी स्वतंत्रता पूर्वक जीने का हक है। यदि हम बचपन से ही संस्कार, घर की मर्यादा और नियम कानून सामाजिक प्रतिष्ठा, व्यक्ति की गरिमा का ज्ञान बच्चों को नैतिकता के आधार पर प्रदान करेंगे तो निश्चित रूप से मन में शुद्धि आएगी और दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता का हम सम्मान करेंगे,उसे भी ईश्वर प्रदत्त जीवन जीने के लिए दूसरा अवसर प्रदान करेंगे।
प्रकृति ने हमें स्वतंत्र किया है यदि हम स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की सीमा रेखा नहीं खींच पाए तो शायद वह दिन दूर नहीं जब हम मनुष्य कहलाने के लायक भी ना बचे।

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