स्वतंत्रता आंदोलन में काकोरी ट्रेन एक्शन की परवर्ती भूमिका-प्रमोद दीक्षित. मलय.
1 min read- प्रमोद दीक्षित मलय
स्वतंत्रता आंदोलन में काकोरी ट्रेन एक्शन की परवर्ती भूमिका
• प्रमोद दीक्षित मलय
अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के लिए मार्च 1857 से आरम्भ स्वातंत्र्य समर की परिणति अगस्त 1947 में आजादी की प्राप्ति से हुई। नौ दशकों के सतत स्वाधीनता संघर्ष के कालखंड में भारत का तेजोमय राष्ट्रीय चेतना का स्वर न केवल अविराम मुखरित रहा बल्कि नव पीढ़ी को क्रांति पथ पर आत्म बलिदान हेतु बढ़ने-लड़ने को प्रेरित एवं उत्साहित भी करता रहा है। यही कारण है प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से स्वतंत्रता प्राप्ति तक समाज जीवन के विविध क्षेत्रों से जुड़े यथा किसान, मजदूर, विद्यार्थी, वकील, राजनीतिक कार्यकर्ता, गिरि-वनवासी समाज ने भारत माता की सेवा साधना में स्वयं को समर्पित कर दिया था। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास पर अगर एक विहंगम दृष्टि डालें तो कुछ घटनाएं मानस पटल पर स्वत: अंकित होने लगती हैं जिन्होंने न केवल संघर्ष की धारा को प्रभावित किया अपितु नवल आयाम स्थापित करते हुए संघर्ष को दिशा भी दी। जलियांवाला बाग नरसंहार अप्रैल 1919, खिलाफत आन्दोलन नवम्बर 1919, असहयोग आंदोलन 1920, चौरी-चौरा कांड फरवरी 1922, काकोरी ट्रेन खजाना लूट एक्शन अगस्त 1925 आदि घटनाओं में काकोरी ट्रेन एक्शन चर्चित और अंग्रेजी सत्ता को सीधे चुनौती देने वाली घटना थी। सरकारी खजाने की इस लूट से अंग्रेजी शासन बौखला गया। उन्होंने स्वप्न में नहीं सोचा था कि ऐसा दुस्साहस कोई कर सकता है। इसीलिए इस खजाने की लूट में शामिल रहे क्रांतिकारियों के साथ ही अंग्रेजी सरकार हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े अन्यान्य क्रांतिधर्मी नवयुवकों की धरपकड़ करने, सख्त सजा देने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। उल्लेखनीय है कि ट्रेन से जा रहे सरकारी खजाने को काकोरी स्टेशन में लूटने की योजना के सूत्रधार पं. रामप्रसाद बिस्मिल थे जिसमें चंद्रशेखर आजाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मथनाथ गुप्त, शचींद्रनाथ बख्शी आदि क्रांतिकारी योजना के शिल्पकार बने। कहते हैं, क्रांतिकारी दल की ताकत कम होने तथा घटना पश्चात अंग्रेजी पुलिस द्वारा धरपकड़ से दल के बिखराव की आशंका से अशफाक उल्ला खां खजाने की लूट योजना से असहमत थे, पर अंततः दल के निर्णय के साथ सहर्ष शामिल रहे। हालांकि अशफाक की आशंका आगे सच साबित हुई। न केवल दल बिखर गया बल्कि कुछेक क्रांतिकारियों को छोड़कर सभी कैद कर लिए गए, फांसी की सजा के साथ ही आजीवन कारावास भी हुआ। यदि अशफाक की बात मान खजाना लूट योजना टाल दी गई होती तो स्वतंत्रता आंदोलन का चित्र कुछ अलग प्रकार का होता। लेकिन निर्मोही समय इतिहास का लेखन और आकलन ‘यदि, किंतु-परंतु’ जैसे शब्दों की भावुकता में बहकर नहीं करता अपितु निर्मम यथार्थ की कठोर चट्टानों पर अपनी इबारत लिखता है।
9 अगस्त, 1925 की रात्रि अपने यौवन पर थी। काकोरी से छूटी 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन ने पटरियों पर सरकना शुरू ही किया था, यात्री नींद में थे या अपनी सीटों पर पसरे ऊंघ रहे थे। 8 अगस्त को बिस्मिल के शाहजहांपुर आवास पर हुई बैठक की तय योजनानुसार 10 क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, शचींद्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, बनवारी लाल, मुरारी शर्मा, मुकुंदी लाल, केशव चक्रवर्ती ट्रेन में सवार थे। तभी उचित अवसर देख राजेंद्रनाथ लाहिड़ी ने जंजीर खींचकर कर ट्रेन रोक दी। अशफाक ने चीते सी चपलता से ड्राइवर को काबू में किया। गार्ड ने मुकाबला करने की कोशिश की पर बिस्मिल ने उसे औंधे मुंह जमीन पर गिरा नियंत्रित कर लिया। ख़ज़ाने की तिजोरी उतारी गई, ताला न खुलने के कारण अशफाक ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को थमा, स्वयं घन से दनादन प्रहार करना आरम्भ किया। घन की मार से शीघ्र ही तिजोरी में बड़ा छेद हो गया। चांदी के सिक्के और रुपये एक चादर पर समेट क्रांतिकारी रात्रि के अंधकार में विलीन हो गये।
सरकारी खजाने की लूट से अंग्रेजी सत्ता की बड़ी किरकिरी हुई। जांच शुरू हुई। जल्दबाजी में घटना स्थल पर छूट गई एक चादर की निशानदेही पर सूत्र जुड़ते चले गये। काकोरी लूट में शामिल क्रांतिकारियों को पकड़वाने, उनके गुप्त ठिकाने की सूचना देने हेतु पुरस्कार घोषित कर थानों और नगरों-कस्बों की दीवारों पर पोस्टर चिपकाए गए। स्काटलैंड से स्पेशल पुलिस दस्ता भी बुलाया गया। इस प्रकार हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े 40 क्रांतिकारियों को देश के विभिन्न नगरों से पुलिस पकड़ने में सफल हुई। चंद्रशेखर आजाद अंत तक अंग्रेजों के हाथ न आये। अशफाक उल्ला खां विदेश जाने के प्रयास में दिल्ली में आश्रयदाता मित्र की गद्दारी से पकड़े गए। कैद सभी क्रांतिकारियों पर ब्रिटिश सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी कोष लूटने, यात्रियों की हत्या करने और अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ षड़यंत्र रचने का आरोप लगा मुकदमा आरम्भ किया गया। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि केवल 4679 रुपए की लूट के मुकदमे पर ब्रिटिश सरकार ने आठ लाख रुपए से अधिक धन खर्च किया। लगभग दो वर्ष तक मुकदमा चला, बहसें हुईं। अंततः 22 अगस्त, 1927 को अवध चीफ कोर्ट लखनऊ द्वारा फैसला सुनाया गया। 14 आरोपी साक्ष्यों के अभाव में छोड़ दिए गये। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा, हालांकि रोशन सिंह खजाने की लूट में शामिल नहीं थे। शेष को 4 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास और काले पानी की सजा हुई। सजा के विरुद्ध प्रखर वक्ता महामना मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में पांच सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने शिमला जाकर वायसराय से क्षमादान की अपील किया पर घटना से भयाक्रांत वायसराय ने मना कर दिया। प्रिवी कौंसिल लंदन भेजी गई क्षमादान की अपील को सम्राट ने बिस्मिल और उनके साथियों को ब्रिटिश सत्ता के लिए अत्यंत विरोधी एवं घोर शत्रु करार देते हुए निरस्त कर दिया। फलत: चार क्रांतिकारियों को विभिन्न जेलों में फांसी पर चढ़ा दिया गया, शेष सख्त कैद में डाल दिए गए।
काकोरी ट्रेन एक्शन सामान्यतौर पर एक छोटी सी घटना लगती है। पर तत्कालीन समय में इसके निहितार्थ का फलक विस्तार लिए था। यह घटना भारतीयों में यह विश्वास जगाने में सफल रही कि अंग्रेजों को सीधे और सशस्त्र ढंग से चुनौती दी जा सकती है। अंग्रेजी पुलिस पहली बार सोचने पर विवश हुई कि अहिंसात्मक आंदोलनों से इतर अब सशस्त्र संघर्ष मुखरता की ओर बढ़ेगा। वास्तव में काकोरी ट्रेन एक्शन ने सम्पूर्ण देश को आत्मीयता के धागे में पिरो शौर्य से भर दिया था। देशवासियों के दिलों में उल्लास, ऊर्जा और उमंग की वेगवान धारा बहा दी थी। यही कारण था काकोरी घटना के पश्चात अंग्रेजी सत्ता टिक न सकी और दो दशक बाद ही उसकी शक्ति का पराभव हो गया। काकोरी ट्रेन एक्शन के शताब्दी दिवस के अवसर पर हम भारतीय उन सभी हुतात्मा क्रांतिकारियों के प्रति श्रद्धा से शीश झुका अपने भाव सुमन अर्पित करते हैं।
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लेखक- प्रमोद दीक्षित शिक्षक हैं- बांदा (उ.प्र.)
मोबा. 9452085234
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